Sunday 16 February 2014

कभी ख़ुद को देखूं तेरी नज़र से मैं


कभी ख़ुद को देखूं तेरी नज़र से मैं

देखूं
क्या है जो तुझे नागवार है इतना
सीने में मेरे लिए ग़ुबार है कितना
सारे शिकवे गिले सुनूं, तेरी नफरत की इन्तहा देखूं
माज़ी की गली जाऊं, रंजिशों की इब्तदा देखूं  
कभी ख़ुद को देखूं तेरी नज़र से मैं

देखूं
मेरी हस्ती क्यों नापसंद है तुझे
मैं इतना तो बुरा नहीं, ये कैसा रंज है तुझे
तेरी नाराज़गी का सबब जानूँ, कुछ उलझनें उधार रख लूँ मैं
जो नज़र-अंदाज़  किए थे कभी, उन अश्क़ों को चख लूँ मैं 
कभी ख़ुद को देखूं तेरी नज़र से मैं

देखूं
कैसे एक ग़लती माफ़ी के परे हो गई
जो मैं था तेरे लिए, वो कैसे दूसरे हो गए
तेरे ख्वाबों की करची चुनू, कुछ पुराने ज़ख्म खुरच दूँ मैं
वफ़ा के तेरे मयार पर, ख़ुद अपनी मुहब्बत परख लूँ मैं
कभी ख़ुद को देखूं तेरी नज़र से मैं

अपने गुनाहों के हिसाब लूँ ख़ुद से
तेरे सवालों के जवाब लूँ ख़ुद से
कि थक गया हूँ ख़ुद तक के सफर से मैं
कभी ख़ुद को देखूं तेरी नज़र से मैं