Monday 17 March 2014

एक लम्हे की मुहब्बत - शायान

मैं ढीली टाई और शिकन-आलूद* शर्ट में
लोकल ट्रेन के दुसरे दर्जे में बैठा
मुम्बई की भागती-दौड़ती भीड़ से जूझता
सांसें लेने की कोशिश कर रहा था...

तुम शायद ऑफिस से निकल
मिलने जा रही थी किसी से
थके चेहरे पे खूब पानी के छीटों से
जगाना चाहा था हिसों* को अपनी
कानो में सस्ते से इअर-रिंग डाल रखे थे
शायद ट्रेन में ही लिया होगा कभी

कुछ ऐसा नहीं था
की मैं देखता मुड़ कर दुबारा
ट्रेन धक्के खाती हुई
अभी निकलने को ही थी स्टेशन से
की तुम किसी बात पर मुस्कुरायी

एक पल के लिए मदहम पड़ गयी मुम्बई की रफ़्तार भी
दूसरे लम्हे, स्टेशन वो छूट गया पीछे कहीं

एक लम्हे की मुहब्बत थी वो
लम्हे भर में गुज़र गयी
हाँ, लजज़त उसकी रहेगी कुछ दिनों तक होंटों पर
कुछ दिनों तक मुस्कुराऊंगा मैं...


*शिकन-आलूद - wrinkled, crumpled
*हिस - senses

भूख

तुम्हे याद तो होगा
बड़े गुरूर से एक दावा किया था कई बार
मुहब्बत को कभी क़ुर्बान कर भी दूं लेकिन
अना तो फिर भी अज़ीज़ है...
तुम अजीब सी नज़रों से देखती मुझे
गिला नहीं, गुस्सा भी नहीं
शक हुआ था एक बार
तरस के कुछ साये थे तुम्हारी नज़रों में
या तंज़ था शायद.
पहला हिस्सा अना का अपनी
जला दिया था फेरों की अग्नि में तुम्हारे
छोटे से एक ब्रीफ़केस में तमाम यादें लिए
स्टेशन पे कर रही थी इंतज़ार मेरा
और पहुँच कर मैंने, बस यूँ कहा
"चलो घर छोड़ आऊँ तुम्हे,
सब परेशां हो रहे होंगे"
तंज़ था शायद आँखों में तुम्हारे
या बे-यकीनी...
एक दुसरे वक़्त,
ख्वाबों के पीछे दौड़ने की
क़ीमत चुकाई थी नक़द में
बाबा के दिए हुए सोने की बालियां देते वक़्त
माँ  की आँखों में बे-यकीनी थी
या दर्द...
अब याद पड़ता है
कुछ पैसे ज़यादा मिले थे उस दिन
सोनार के तराज़ू पे
एक हिस्सा अना का भी चढ़ा आया था शायद
आईने में अपने अक्स को देखा जो आज
आँखों से दर्द छलक रहा था शायद
या भूख...
थोड़ी खुददारी बची है किसी कोने में अब भी
उसे गिरवी रख दूं कहीं
एक वक़्त का खाना हो जाए