Thursday 10 December 2015

Freedom - An Illusion

मैं आज़ाद हूँ.
गुनाहों से, अज़ाबों से, अंधेरों से.
मेरी गली की बिजली नहीं जाती, मेरी सड़क पर जुर्म नहीं होते,
मैं मुत्मईं हूँ, महफूज़ हूँ, मसरूफ हूँ,
मैं आज़ाद हूँ.

जो रात घर न लौट सकी, वो मेरी बेटी नहीं थी,
धर्म के नाम पर जो घर फूँक दिए, वो मेरा घर नहीं था,
सड़कों पर भूखे, नंगे, भीख मांगते बच्चे मेरे नहीं हैं,
वो जो जल कर मर गयी, वो मेरी पत्नी नहीं थी,
मेरे माँ-बाप दर-ब-दर ठोकरें नहीं खाते,
जिसकी इज़्ज़त बेबस सी सिसक रही थी दरवाज़े पर, वो मेरी बहन नहीं थी,
सरहद पर कल जो शहीद हो गया, वो मैं नहीं हूँ.

मेरी चार-दीवारी के आगे की दुनिया से,
मुल्क, इंसानियत, मुस्तक़बिल से,
सब बेवजह की फ़िक्रों से,
मैं आज़ाद हूँ.

The Idea of an Ideal Love

तेरे चेहरे पर देखना है गुज़रे हुए साल,
तजुर्बे* का रंग बालों में उतरते देखना है.
कांपते हाथों का सहारा देना है तुझे,
उम्र को आँखों में उभरते देखना है.
हमारे साथ के ग़म भी मुझे अज़ीज़* हैं यूँ,
बचकाना* बातों पर खुद को झगड़ते देखना है.
तेरे अश्कों को चुनना है लबों से अपने,
दामन में तेरे, खुद को बिखरते देखना है.

मुहबत की हसीं सहर* ठहरती कहाँ हैं?
मुझे वफ़ा की ज़ईफ़* शामें देखनी हैं.
ज़िन्दगी के आखिरी पड़ाव* पर, जानां,
अपने पहलू* में तुझे देखना है.

*तजुर्बे - experience
*अज़ीज़ - dear to me
*बचकाना - silly
*हसीं सहर - beautiful dawn
*ज़ईफ़ - old / mature /aged
*आखिरी पड़ाव - last stage
*पहलू - by my side

The Lost Identity

होंटों पर दुआ नहीं रहती, रंग रहते हैं,
ज़ुबां पर मुनाफ़िक़त* का ज़ायका*.
आँखें हैं कि ख़ाली वीरान हवेलियां;
बरसों से कोई आया नहीं हो जैसे.
सिगरेट की बू बस गयी है वजूद में;
धुआं जाने क्यों छंटता ही नहीं.
हथेली की लकीरें सूख कर गिरने लगी हैं,
वक़्त के पहले मौत आ रही है इन्हे.
सांसें महंगे परफ्यूम जैसी लगती हैं;
गैर-ज़रूरी* सी ज़रुरत,
जिसका असर उतरने लगा है अब
पेशानी* की सिलवटें* कम होती हैं,
ना लबों की मुस्कराहट.

आईना रोज़ पूछता है शिनाख्त* मेरी,
रोज़ मैं तुम्हारा चेहरा ओढ़ लेती हूँ.

*मुनफ़िक़त - hypocrisy
*ज़ायका - taste
*ग़ैर-ज़रूरी - unimportant
*पेशानी - forehead
*सिलवटें - wrinkles
*शिनाख्त - identity

Phone Call

रात फ़ोन नहीं कर पाने की
एक सी वजह दी दोनों ने
"देर बहुत हो गयी थी"

माँ को डर इस बात का,
सो ना गया हूँ मैं.
मुझे शर्मिंदगी का ख़ौफ़,
माँ जागती ना हो अब तक

Domestic Violence

मोहब्बत में जिस्म पर नील नहीं पड़ते,
होंठों के कोनों से खून नहीं रिसता;
ढलती शामों से वहशत* नहीं होती,
शनासा* चेहरों से खौफ नहीं आता.
ज़ख़्मी चीख़ें सिसकती नहीं हैं रात भर,
दोस्तों की आँखों से हमदर्दी नहीं झांकती;
चूड़ियाँ कब टूटती है रोज़ कलाई में
मोहब्बत में अना* यूँ रौंदी नहीं जाती.
किसी और रिश्ते का वास्ता दो,
कुछ जज़्बात ज़िंदा हो जाएँ
तुम मोहब्बत का नाम लेते हो,
तो बस नफरत जागती है.

*वहशत - fear
*शनासा - familiar
*अना - self-esteem

December

दिसंबर,
बहुत बदल गए हो तुम.

याद है मुझे ,
बचपन में शिद्दत* पसंद हुआ करते थे
सुबह अनमनी सी, आँखें भींचें धीरे धीरे आती थी
शामें लुक्का-छिप्पी खेलती, जाने कब निकल जातीं
रातें ज़िद्दी बच्चों सी, देर तक सोयी रहती थी
छोटे से आँगन में, चंद घंटों के लिए
धूप आती थी मेहमान बनकर
टूटी हुई चारपाई के एक कोने में
शरमाई सी, सिमटी रहती थी बस
आँखों पर माँ की गरम शाल खींच कर
तुम्हारी गोद में कितनी बेफिक्र नींदें ली हैं मैंने

दिसंबर
तुम बदल गए हो
बहुत मासूम चेहरा था,
जिस पर अब ज़माने की गर्द है.
दुनियादारी उतर आई है आँखों में,
पहले की तरह बारिशें नहीं होती.
ना नर्म गुलाबी शामें हैं, ना ज़िद्दी रातें,
ज़रूरत नहीं रही मिटटी के चूल्हों की;
कांच के घरों में अब,
मौसम कहाँ बदलते हैं?

सुनो,
हो सके तो
अगली बार शिद्दतें* ले कर आना
नाराज़ नाराज़ सी बारिशें ले कर आना
इस शहर में सब जल्दी में रहते हैं
तुम बचपन की फुर्सतें ले कर आना

*शिद्दत - intense/intensity

I Apologize!

दाग़ मेरे दामन पर लगा है,
उंगलियां मेरे किरदार पर उठी हैं,
सवाल मेरे वजूद पर है.

माँ की चेहरे पर अजब शर्मिंदगी बसती है,
बहन की ख़ौफ़ज़दा आँखों में नमी सी रहती है,
अब्बा के बूढ़े कंधे कुछ और झुक गए हैं.
आइना देखने की हिम्मत नहीं होती अब,
मेरी दुआओं में असर नहीं रहा कोई,
मेरा ख़ुदा शायद नाराज़ है मुझसे.

मगर,
तुम क्यूँ रोती हो?
तुम पाक-दामन अक्स हो ख़ुदा का.
तुम्हारे हर अश्क़ का जवाब मुझ को देना है.
ये मुंह छिपाना किस लिए?
शर्मसार तो मैं हूँ.
तुम पर हुए हर ज़ुल्म का हिसाब मुझ से होना है

तुम क्यूँ रोती हो?
गुनहगार तो मैं हूँ
मर्द तो मैं हूँ!

Life in a Metro

वो ज़माना और था जब सांस आती थी तस्वीर देख कर,
अब तो रोज़ मिलते हैं और दिल धड़कता भी नहीं.

मुलाक़ात के जो लम्हे पंख लगा कर उड़ते थे,
वही वक़्त फ़ोन पर अब सरकता भी नहीं.

कभी न भूल पाने की जो ज़िद लगाये बैठा था,
वो शख़्स अब पलट कर देखता भी नहीं.

गर्मी की छत, सर्दियों के आँगन, सब मुफलिसी* की बातें,
शीशे के मेरे घर में अब मौसम बदलता भी नहीं.

किसी मोड़ पर रुक कर तेरा इंतज़ार कर तो लूँ,
किस तरह? यह शहर मेरे लिए रुकता भी नहीं.

ये मुंबई है, यहाँ मुहब्ब्बतों के अंदाज़ जुदा हैं
मुझे बना कर अपना, मेरा बनता भी नहीं

*मुफलिसी - ग़रीबी

Mother

सीने में दिल नहीं होता, साँसों में जान नहीं होती;
कुछ और हो तो हो, माँ इंसान नहीं होती!

रोज़ शाम को दरवाज़े की घंटी जब कोई बजाता है;
ऑफिस से थका-हारा उसका दिल भी लौट आता है.
फ़ोन पर आवाज़ सुन कर, सांस लेना ज़रा होता है आसान;
आजकल हज़ारों मील दूर किसी शहर में रहती है जान.
सोती नहीं है वो भी तुम्हारे इम्तिहानों पर;
तुम जब झपकियाँ लेते हो, सर रख कर किताबों पर.
दर्द बहुत होता है, अश्क भी बहते हैं;
चोट के निशां मगर किसी और जिस्म पर रहते हैं.
दुआओं में हाथ उठते हैं, सजदों में कमी होती नहीं;
खुद के लिए माँगा कब है कुछ, वो अपने लिए रोती नहीं.

माँ की ज़ात नहीं होती, माँ का नाम नहीं होता;
ख़ुदा ही होगी वो, इंसान का गुमान नहीं होता.

That Day After Days

मोबाइल में जितने नंबर थे,
सब से दोस्ती निभा ली.
अँधेरे एक कमरे में, लैपटॉप की स्क्रीन से,
अनदेखे चेहरों की खुशियों में शिरकत* भी हो गयी .
भूले बिसरे रिश्तों को,
वक़्त न मिलने के रस्मी* बहाने सुना दिए.
ऑफिस के ग़ैर-ज़रूरी से काम,
कल पर डाल दिए सारे.

अब और टाला नहीं जाता...
बहुत दिनों से कुछ बोलने की कोशिश में है,

चलो आज ज़मीर* की सुन ही लेते हैं.

*शिरकत - participate/join
*रस्मी - customary
*ज़मीर - conscience

Diary of a Stranger



(1)
किसी बुरे ख़्वाब का हिस्सा रहा हो जैसे
ना जाने क्यूँ देखा-देखा लगता है
उस शख्स से अजीब वहशत होती है
वो, जो आईने में रहता है

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(2)
तुम ख़ामोशी से उठ कर चले गए
मेरे पहलू में तुम्हारी ख़ामोशी बैठी है अब भी

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(3)
वो कौन हैं जो मर जाते हैं मुहब्बत में
मैं तो जीना सीख रहा हूँ तुम्हारे जाने के बाद

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(4)
फ़रिश्तों को मार डाला एक जन्नत के वास्ते
मज़हब ने बदल दिए हैं मज़हब के मायने

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(5)
उसने ख़ुदकुशी कर ली कल रात
वो जो आईने में रहता था
बिना रूह के जिस्म ज़िंदा नहीं रहते

The Price I Paid!

सुना है, बहुत फ़क़र्* से करती हो ज़िक्र मेरा
जो कभी तुम थी मेरे लिए,
सुना है, मैं अब वो बन गया हूँ तुम्हारा

खतों के पुर्ज़ों को वापस जोड़ दिया है तुमने
सुना है, मेरी नज़्मों में अब खुद को ढूँढा करती हो.
जिस झील पर घंटो किया था बेसबब इंतज़ार मैंने
सुना है, वहां अक्सर अब तनहा बैठी रहती हो.
जो वफ़ा न कर सकी, वो वक़्त-ए-उरूज* करता है
सुना है, तुम्हारी उँगलियों पर मेरे नाम का हीरा चमकता है.

कौन कहता है मुहब्बत ख़रीदी नहीं जा सकती?

*फ़क़र् - pride
*वक़्त-ए-उरूज - rising /peak time

Now is not the time!

हमें मिलना है किसी और मोड़ पर, जानां
तुम्हे माज़ी के कई वरक़* जलाने हैं अभी
मुझे हथेली की कुछ लकीरें मिटानी हैं.
किसी के अश्क़ों का हिसाब भी देना है
तुम पर एक मुस्कराहट का क़र्ज़ बाक़ी है.
मेरे लिए ज़रूरी है मैं भीड़ का हिस्सा बन पाऊँ
तुम्हे तन्हाई की भी आदत होनी चाहिए.

हमें मिलना है किसी और मोड़ पर, जानां

जरूरी है कि तुम महरूमी* ज़रा समझो
मेरे ख्वाब ज़रा चटक* जाएं, तो बेहतर.
तुम्हे कुछ थकन सी हो मुझसे
मेरे सीने में भी वहम* आने चाहिए.
फ़क़त* ख़्वाहिश की बुनियाद* कमज़ोर होती है
तुम्हे मेरी ज़रूरत होनी चाहिए.

हमें मिलना है किसी और मोड़ पर, जानां
अना* थक कर हार जाएगी रस्ते में कहीं
जब चेहरों से चेहरे उतर जाएंगे.
ज़रा बिखरी हुई तुम, बहुत टूटा हुआ मैं
जब मुहब्बतों के मायने बदल जाएंगे.
हमें मिलना है उस मोड़ पर, जानां!

*वरक़ - pages
*महरूमी - deprivation
*चटक - crack
*वहम - suspicion
*फ़क़त - only
*बुनियाद - foundation
*अना - ego

Ghazal

तुझे जुस्तजू है सराब* की, मैं हक़ीक़तों से जुड़ा हुआ
मैंने रास्ते जब भुला दिए, तेरा सफ़र वहां से शुरू हुआ

हमक़दम तू था ज़रूर, बस वास्ता कुछ अलग सा,
तुझे मंज़िलों का शौक़ है, मैं कारवाँ से बंधा हुआ

एक लम्हे में कब ली दोनों ने साथ सांसें,
तुम्हे मुस्तक़बिल* की फ़िक्र बहुत, मैं माज़ी* से नहीं जुदा हुआ

मैं जहाँ था, तू वहां है अब, ये क्या मोड़ है ज़िन्दगी?
तेरी रफ़ाक़तों* का आग़ाज़* है, मैं मुहब्बतों से थका हुआ!


*सराब - mirage
*मुस्तक़बिल - future
*माज़ी - past
*रफ़ाक़त - friendship /companionship
*आग़ाज़ - beginning

The Tragedy of Love

तुम्हारी मुहब्बत महदूद* है अभी
रंग, ख़्वाब, गुलाबी शाम तक,
मेरी शायरी में तुम्हारे नाम तक
तुम्हारी रफ़ाक़तें* पाबंद* हैं
जाड़े की धूप, पहली बारिश की
इश्क़ में मिले हर आराइश* की
और
मेरी मुहब्बत का अल्मिया* है
कि इस पर हक़ीक़त की बंदिशें हैं

सुनो,
ज़रा खुद ही सोचो,
तुम्हारी ये नाज़ुक सी मोहब्बत
कब साथ दे पाएगी?
अस्पताल के अँधेरे कमरे में,
जहाँ रोग जान को लगने लगे.
ज़िन्दगी जिस्म पे तंग हो जाए,
जब मेरी सांसें कम पड़ने लगें.
और जून की जलती दुपहर में,
नंगे पांव पे छाले बनने लगे.
घर की दीवारों से रंग उतर जाए,
और ख्वाबों से पेट न भरने लगे.
जब छोटे से घरोंदे को,
सैलाब* का रेला बहा ले जाए.
जब रिश्ते वफ़ा से मुकर जाएं,
इश्क़ आज़माइश* पर उतर आए.
तुम्हारी ये नाज़ुक सी मोहब्बत...
कहाँ साथ दे पाएगी?

इसलिए बेहतर है जानां
कि रास्ते जुदा ही रहें
तुम्हारे ख़्वाब हैं कांच के
मेरा सफर बहुत पथरीला है 

*महदूद - restricted
*रफ़ाक़तें - friendship
*पाबंद - bound to
*आराइश - adornment
*अल्मिया - tragedy
*सैलाब - flood
*आज़माइश - to bring to test