सीने में दिल नहीं होता, साँसों में जान नहीं होती;
कुछ और हो तो हो, माँ इंसान नहीं होती!
रोज़ शाम को दरवाज़े की घंटी जब कोई बजाता है;
ऑफिस से थका-हारा उसका दिल भी लौट आता है.
फ़ोन पर आवाज़ सुन कर, सांस लेना ज़रा होता है आसान;
आजकल हज़ारों मील दूर किसी शहर में रहती है जान.
सोती नहीं है वो भी तुम्हारे इम्तिहानों पर;
तुम जब झपकियाँ लेते हो, सर रख कर किताबों पर.
दर्द बहुत होता है, अश्क भी बहते हैं;
चोट के निशां मगर किसी और जिस्म पर रहते हैं.
दुआओं में हाथ उठते हैं, सजदों में कमी होती नहीं;
खुद के लिए माँगा कब है कुछ, वो अपने लिए रोती नहीं.
माँ की ज़ात नहीं होती, माँ का नाम नहीं होता;
ख़ुदा ही होगी वो, इंसान का गुमान नहीं होता.
कुछ और हो तो हो, माँ इंसान नहीं होती!
रोज़ शाम को दरवाज़े की घंटी जब कोई बजाता है;
ऑफिस से थका-हारा उसका दिल भी लौट आता है.
फ़ोन पर आवाज़ सुन कर, सांस लेना ज़रा होता है आसान;
आजकल हज़ारों मील दूर किसी शहर में रहती है जान.
सोती नहीं है वो भी तुम्हारे इम्तिहानों पर;
तुम जब झपकियाँ लेते हो, सर रख कर किताबों पर.
दर्द बहुत होता है, अश्क भी बहते हैं;
चोट के निशां मगर किसी और जिस्म पर रहते हैं.
दुआओं में हाथ उठते हैं, सजदों में कमी होती नहीं;
खुद के लिए माँगा कब है कुछ, वो अपने लिए रोती नहीं.
माँ की ज़ात नहीं होती, माँ का नाम नहीं होता;
ख़ुदा ही होगी वो, इंसान का गुमान नहीं होता.
No comments:
Post a Comment