Thursday, 10 December 2015

Life in a Metro

वो ज़माना और था जब सांस आती थी तस्वीर देख कर,
अब तो रोज़ मिलते हैं और दिल धड़कता भी नहीं.

मुलाक़ात के जो लम्हे पंख लगा कर उड़ते थे,
वही वक़्त फ़ोन पर अब सरकता भी नहीं.

कभी न भूल पाने की जो ज़िद लगाये बैठा था,
वो शख़्स अब पलट कर देखता भी नहीं.

गर्मी की छत, सर्दियों के आँगन, सब मुफलिसी* की बातें,
शीशे के मेरे घर में अब मौसम बदलता भी नहीं.

किसी मोड़ पर रुक कर तेरा इंतज़ार कर तो लूँ,
किस तरह? यह शहर मेरे लिए रुकता भी नहीं.

ये मुंबई है, यहाँ मुहब्ब्बतों के अंदाज़ जुदा हैं
मुझे बना कर अपना, मेरा बनता भी नहीं

*मुफलिसी - ग़रीबी

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