दिसंबर,
बहुत बदल गए हो तुम.
याद है मुझे ,
बचपन में शिद्दत* पसंद हुआ करते थे
सुबह अनमनी सी, आँखें भींचें धीरे धीरे आती थी
शामें लुक्का-छिप्पी खेलती, जाने कब निकल जातीं
रातें ज़िद्दी बच्चों सी, देर तक सोयी रहती थी
छोटे से आँगन में, चंद घंटों के लिए
धूप आती थी मेहमान बनकर
टूटी हुई चारपाई के एक कोने में
शरमाई सी, सिमटी रहती थी बस
आँखों पर माँ की गरम शाल खींच कर
तुम्हारी गोद में कितनी बेफिक्र नींदें ली हैं मैंने
दिसंबर
तुम बदल गए हो
बहुत मासूम चेहरा था,
जिस पर अब ज़माने की गर्द है.
दुनियादारी उतर आई है आँखों में,
पहले की तरह बारिशें नहीं होती.
ना नर्म गुलाबी शामें हैं, ना ज़िद्दी रातें,
ज़रूरत नहीं रही मिटटी के चूल्हों की;
कांच के घरों में अब,
मौसम कहाँ बदलते हैं?
सुनो,
हो सके तो
अगली बार शिद्दतें* ले कर आना
नाराज़ नाराज़ सी बारिशें ले कर आना
इस शहर में सब जल्दी में रहते हैं
तुम बचपन की फुर्सतें ले कर आना
*शिद्दत - intense/intensity
बहुत बदल गए हो तुम.
याद है मुझे ,
बचपन में शिद्दत* पसंद हुआ करते थे
सुबह अनमनी सी, आँखें भींचें धीरे धीरे आती थी
शामें लुक्का-छिप्पी खेलती, जाने कब निकल जातीं
रातें ज़िद्दी बच्चों सी, देर तक सोयी रहती थी
छोटे से आँगन में, चंद घंटों के लिए
धूप आती थी मेहमान बनकर
टूटी हुई चारपाई के एक कोने में
शरमाई सी, सिमटी रहती थी बस
आँखों पर माँ की गरम शाल खींच कर
तुम्हारी गोद में कितनी बेफिक्र नींदें ली हैं मैंने
दिसंबर
तुम बदल गए हो
बहुत मासूम चेहरा था,
जिस पर अब ज़माने की गर्द है.
दुनियादारी उतर आई है आँखों में,
पहले की तरह बारिशें नहीं होती.
ना नर्म गुलाबी शामें हैं, ना ज़िद्दी रातें,
ज़रूरत नहीं रही मिटटी के चूल्हों की;
कांच के घरों में अब,
मौसम कहाँ बदलते हैं?
सुनो,
हो सके तो
अगली बार शिद्दतें* ले कर आना
नाराज़ नाराज़ सी बारिशें ले कर आना
इस शहर में सब जल्दी में रहते हैं
तुम बचपन की फुर्सतें ले कर आना
*शिद्दत - intense/intensity
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