Thursday, 10 December 2015

The Lost Identity

होंटों पर दुआ नहीं रहती, रंग रहते हैं,
ज़ुबां पर मुनाफ़िक़त* का ज़ायका*.
आँखें हैं कि ख़ाली वीरान हवेलियां;
बरसों से कोई आया नहीं हो जैसे.
सिगरेट की बू बस गयी है वजूद में;
धुआं जाने क्यों छंटता ही नहीं.
हथेली की लकीरें सूख कर गिरने लगी हैं,
वक़्त के पहले मौत आ रही है इन्हे.
सांसें महंगे परफ्यूम जैसी लगती हैं;
गैर-ज़रूरी* सी ज़रुरत,
जिसका असर उतरने लगा है अब
पेशानी* की सिलवटें* कम होती हैं,
ना लबों की मुस्कराहट.

आईना रोज़ पूछता है शिनाख्त* मेरी,
रोज़ मैं तुम्हारा चेहरा ओढ़ लेती हूँ.

*मुनफ़िक़त - hypocrisy
*ज़ायका - taste
*ग़ैर-ज़रूरी - unimportant
*पेशानी - forehead
*सिलवटें - wrinkles
*शिनाख्त - identity

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