Sunday, 6 April 2014

एक लम्हे की मुहब्बत - शाम

मैं ऑफिस से निकल
मिलने जा रही थी जाने किससे
वो सामने ट्रेन के सेकंड क्लास डब्बे में बैठा
माथे पर ढेर सारी शिकनें सजाए
जाने क्या सोच रहा था

धूप में जली रंगत, बालों में हलकी सी चांदी 
हाथ में ब्राउन बेल्ट वाली घड़ी
शिकन-आलूद नीली शर्ट
और गले में लटकती टाई
कुछ भी तो अलग नहीं था उसमे
मुम्बई की बेपनाह भीड़ का एक बेनाम हिस्सा

फिर उसने नज़रें उठायी
वहम था शायद मेरा
पर एक पल के लिए
कुछ कहा उसने आँखों में मेरे 
क्या कुछ नहीं था उस लम्हे में
बारिश, रातें, दुआ, इबादत
सुकून, लुत्फ़, उम्मीद, अश्क़...

मुहब्बत तो नहीं मगर
एक नज़्म उभरी है सीने में आज...

1 comment:

  1. Tabhi to main sochun ki mohtarma aajkal train se kyun itna safar karne lagi hain..... ;-);-)

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