Sunday, 12 January 2014

The First Signs of Moving On!

मुद्दत से था जिस एक पल का इंतज़ार
वह लम्हा सामने पड़ा है
पर क्यूँ एक ख़लिश है सीने में?
और दिल भी कुछ परेशां सा है

तुम सामने हो मेरे, फिर भी
लगता है मीलों का फ़ासला है दरमियां
तुम भी वही हो, मैं भी वहीँ हूँ
फिर क्यूँ दो अजनबी हैं यहाँ?

तुम्हारी आँखों के साये ख़ामोश हैं
और कहते हो "मुझे ख़ुशी है तुमसे मिल कर"
मैंने होंठ हैं सी लिए
बस दो अश्क़ गिरे हैं गालों से फिसल कर

तुम्हारे ज़मीर की चीख़ फ़िज़ा में गूँज रही है
मेरी रूह की सदा को तुमने भी सुना है चौंक कर
दोनों खामोश हैं
दोनों शर्मसार हैं बेपनाह

दो वजूदों के दरमियां
एक तीसरा साया भी मौजूद हैं यहाँ!

No comments:

Post a Comment